Opinion: अहमदाबाद से कांग्रेस ने चल दिया बड़ा दांव, लालू और तेजस्वी के लिए खड़ी की मुश्किल

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पटना: बिहार के बहाने ही सही लेकिन कांग्रेस अब बदल रही है। छह दशक बाद अहमदाबाद में हुए दो दिवसीय अधिवेशन में पार्टी ने बदलाव की मंशा उजागर कर दी। कांग्रेस अब सर्व समाज की पार्टी की छवि बदल देगी। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में उसे ओबीसी, दलित और मुस्लिम समाज से सर्वाधिक उम्मीद है। कांग्रेस को लगता है कि जिस तरह सवर्ण भाजपा के साथ सट-बंध गए हैं, उससे उनके वोटों की आस लगाना अब उसके लिए फायदेमंद नहीं होगा।
अगर उसे अपनी खोई गरिमा हासिल करनी है तो दलित, पिछड़े और मुसलमानों जैसे बहुजन पर दांव लगाना ही ठीक रहेगा। इनकी आबादी तकरीबन 85 प्रतिशत है। कांग्रेस का यह चिंतन उसे कामयाबी दिला पाएगा या नहीं, पर उसका कन्फ्यूजन इसमें साफ झलकता है। उसे इस बड़ी आबादी की राजनीति के लिए पहले क्षेत्रीय दलों से निपटना पड़ेगा, जिनका जन्म ही जातियों के आधार पर हुआ है। एससी-एसटी पर फोकस कांग्रेस ने तय किया है कि वह सत्ता में आने पर एससी-एसटी उपयोजना के लिए केंद्रीय कानून बनाएगी। इनकी आबादी के हिसाब से बजटीय आवंटन की गारंटी देगी।
सुनने में यह बात बेहद अच्छी लगती है। अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लिए उसकी चिंता भी इसमें साफ दिखती है। पर, देश में सर्वाधिक समय तक सत्ता में रहने के दौरान कांग्रेस को यह बात क्यों नहीं सूझी। कांग्रेस सिर्फ 11 साल से सत्ता विहीन है। फिर भी दो राज्यों- कर्नाटक और तेलंगाना में उसकी सरकारें हैं। अगर कांग्रेस का यह नीतिगत निर्णय है तो वह अपने शासन वाले दोनों राज्यों में प्रयोग के तौर पर यह नीति क्यों नहीं अपनाती। दलित, पिछड़े और मुसलमानों की चिंता में दुबली होती जा रही कांग्रेस यह भूल जाती है कि दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण कभी उसके जनाधार रहे, लेकिन अब उनका कांग्रेस से मोह भंग हो चुका है।
मुस्लिम दूर होते गए कांग्रेस ने अपने बड़े मुस्लिम लीडर आरिफ मोहम्मद खान की परवाह नहीं की। गुलाम नबी आजाद के किनारे होने पर उसे कोई कोफ्त नहीं हुई। कांग्रेस शासन में दंगों के सर्वाधिक शिकार मुसलमान हुए। पर, कभी कांग्रेस ने इसकी परवाह नहीं की। नतीजा सामने है। कालांतर में मुसलमानों ने इलाकाई पार्टियों में अपना ठौर तलाश लिया। लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और ममता बनर्जी जैसे लोगों की पार्टियां कांग्रेस के बजाय मुसलमानों को रास आने लगीं। मुसलमानों की मदद से राज्यों में बनी कांग्रेस की सरकारें आहिस्ता-आहिस्ता अपदस्थ होती गईं।
बिहार में 17 फीसद मुसलमान आरजेडी के साथ चले गए। यूपी में मुसलमान समाजवादी पार्टी में अपनी भलाई देखने लगे। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से मुसलमानों की उम्मीदें पूरी होने लगीं। बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी का हश्र सामने है. बिहार में दिव्यांग बन कांग्रेस लालू यादव की पीठ-कंधे की सवारी के लिए अब भी मजबूर है।त बंगाल में तो ममता बनर्जी ने कांग्रेस का नामोनिशान मिटा दिया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने ही किसी तरह जिंदा रखा है।
ओबीसी का आकर्षण कांग्रेस ने तय किया है कि सत्ता में आने पर जाति जनगणना कराएगी। उसके इस चिंतन के मूल में पिछड़ी जातियों की बड़ी आबादी है। पिछड़ी जातियों के सहारे ही क्षेत्रीय दलों की राज्यों में सरकारें बनती रही हैं। ज्यादातर जातीय आधार पर बनी क्षेत्रीय पार्टियों से उनके वोटरों को तोड़ पाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। इसके लिए पहली जरूरत यह होगी कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से नाता तोड़े। अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस का नामलेवा भी बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में नहीं मिलेगा।
अगर नए सिरे से कांग्रेस इसकी कोशिश शुरू करती भी है तो इसके परिणाम आने में वर्षों लग जाएंगे। ओबीसी में भी यादव ही ऐसी जाति है, जो कम से कम दो सूबों में एक खूंटे से बंधी है। बिहार में लालू की पार्टी आरजेडी तो यूपी में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का साथ यादव इसलिए छोड़ने को तैयार नहीं कि इन दलों का नेतृत्व यादव के हाथ में है। एकला चलने की मंशा कांग्रेस के फैसलों से इतना तो पता चलता है कि वह अब किसी के भरोसे नहीं रहना चाहती। पहले की तरह वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करना चाहती है। ऐसा सोचते समय कांग्रेस यह भूल जाती है कि राजनीति की धारा अब पहले जैसी नहीं रही।
विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा भी गठबंधन की सरकारें बनाने को मजबूर हुई है। बिहार में भाजपा दो दशक से गठबंधन की सरकार में भागीदारी कर रही है। केंद्र में भी भाजपा ने अकेले सरकार चलाने की तब भी जोखिम नहीं ली, जब उसे लोकसभा में 303 सीटें हासिल थीं। खुद कांग्रेस ने 1989 से 2014 तक गठबंधन की सरकार का नेतृत्व किया है। ऐसे में अकेले चने की तरह भांड फोड़ने की जिद कारगर हो पाएगी, इसमें संदेह लगता है। ओबीसी, दलित और मुस्लिम जमात को कांग्रेस अगर अपने पाले में करना चाहती है तो उसे सबसे पहले क्षेत्रीय दलों से पंगा लेना पड़ेगा।
क्योंकि अब इन जातियों के वोटर उन्हीं दलों के साथ चले गए हैं। सवर्ण जाति से किनारा कांग्रेस अधिवेशन से निकले संदेश का निहितार्थ यह है कि वह अपनी राजनीतिक समझ और रणनीति दोनों में बदलाव कर रही है। कांग्रेस का मानना है कि भाजपा ने सवर्ण जातियों का समीकरण बनाया है तो उसे भी नए सोशल इंजीनियरिंग का पैटर्न अपनाना चाहिए। ऐसा सोचते समय कांग्रेस यह भूल जाती है कि सवर्ण भी कभी कांग्रेस के ही एकतरफा वोटर थे। ब्राह्मणों का तो कांग्रेस में वर्चस्व ही रहा है। कांग्रेस के नए समीकरण में ओबीसी-दलित-मुस्लिम की बात जिस शिद्दत से दिखती है, उतनी ही अचर्चित फारवर्ड क्लास की जातियां हैं।