धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में

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आजकल धर्मनिरपेक्षता को लेकर चलने वाली बहसें अक्सर जिस तरह का तीखा रूप ले लेती हैं, उसके मद्देनजर यह महत्वपूर्ण है कि पिछले दो दिनों में दो बार सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग फैसलों में इसकी अहमियत रेखांकित हुई। एक मामले में सर्वोच्च अदालत ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा करार दिया तो दूसरे मामले में इसकी संकीर्ण व्याख्या से उपजी गड़बड़ियां दुरुस्त कीं। बुनियादी ढांचे का हिस्सा :
सोमवार को संविधान के 42वें संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि धर्मनिरपेक्षता के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती क्योंकि यह संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है। मामले की गंभीरता का अहसास कराते हुए जस्टिस संजीव खन्ना ने याचिकाकर्ताओं से सीधा सवाल किया कि ‘क्या आप नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष रहे?’ याचिकाकर्ताओं ने भी तब कहा कि उन्हें देश की धर्मनिरपेक्षता से आपत्ति नहीं, वे सिर्फ 42वें संशोधन को चुनौती दे रहे हैं। भारतीय परिवेश के अनुरूप :
सर्वोच्च अदालत के फैसले से यह भी साफ हुआ कि संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े जाने का मतलब यह नहीं है कि इससे पहले धर्मनिरपेक्षता संविधान का अहम हिस्सा नहीं थी। चाहे समानता के अधिकार की बात हो या संविधान में आए बंधुत्व शब्द की या फिर इसके पार्ट 3 में दिए गए अधिकारों की, ये सब इस बात का साफ संकेत हैं कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल विशेषता है। अदालत ने यह भी कहा कि चाहे धर्मनिरपेक्षता हो या समाजवाद, इन्हें पश्चिम के संदर्भ में देखने की जरूरत नहीं। भारतीय परिवेश ने इन शब्दों, मूल्यों, संकल्पनाओं को काफी हद तक अपने अनुरूप ढाल लिया है। नजरिया व्यापक हो :
दूसरा मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्ट 2004 को रद्द किए जाने से जुड़ा था, जिसे मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने गलत करार दिया। हाईकोर्ट ने इस एक्ट को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ माना था। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की इस संकीर्ण व्याख्या के चलते प्रदेश के 13 हजार से ज्यादा मदरसों में पढ़ रहे 12 लाख से अधिक स्टूडेंट्स के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे थे। मगर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जरूरत मदरसों को बैन करने की नहीं बल्कि उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की है। व्यापक नजरिया :
इन दोनों फैसलों पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जरूरत धर्मनिरपेक्षता को आधुनिक लोकतांत्रिक समाज की एक अपरिहार्य विशेषता के रूप में स्वीकार करने की ही नहीं, उसे लेकर उदार और व्यापक नजरिया विकसित करने की भी है। इसे कमजोर करने की कोई भी जानी अनजानी कोशिश अंतत: देश और समाज को ही कमजोर करेगी।