राज कपूर के आरके स्टूडियो के बनने के पीछे का संघर्ष और इसके अंत की कहानी
हिंदी सिनेमा की विरासत का एक सुनहरा अध्याय था राज कपूर का सपना– आरके स्टूडियो. लेकिन आरके स्टूडियो देश में अब तक रहे स्टूडियो सिस्टम से अलग रास्ते पर था.
या यूं कहें कि स्टूडियो सिस्टम के ख़ात्मे के बाद उभरा ये पहला अहम फ़िल्म स्टूडियो था. मगर, बात यहां तक पहुंची कैसे?
फिल्मों में पहली बड़ी क्रांति थी बोलती फिल्मों की शुरुआत. मूक फ़िल्मों से बोलती फ़िल्मों की ओर बढ़ना आसान नहीं था. इस नई तकनीक में पैसा और संसाधन चाहिए थे, जो छोटे निर्माताओं के पास नहीं थे.
नतीजा, छोटी फिल्म कंपनियां बंद हो गईं और बड़े स्टूडियो का दौर शुरू हुआ. साल 1934 तक देश में हॉलीवुड जैसा संगठित, पेशेवर फ़िल्म स्टूडियो सिस्टम स्थापित हो चुका था.
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प्रभात फिल्म कंपनी (पूना), न्यू थिएटर्स (कलकत्ता) और बॉम्बे टॉकीज़ (बंबई) ने सिनेमा पर राज किया, जिनकी कहानी हम आपको इस सिरीज़ के पिछले भागों में बता चुके हैं.
ये स्टूडियो किसी फ़ैक्ट्री की तरह फ़िल्में बनाते थे, जहां कलाकार और तकनीशियन वेतन पर काम करते थे. अशोक कुमार, दुर्गा खोटे, केएल सहगल, दिलीप कुमार, मधुबाला, वी शांताराम और पीसी बरुआ जैसे दिग्गज इसी सिस्टम से निकले.
उस दौर में 15 साल तक ये स्टूडियो ही असली सुपरस्टार थे.
ये भी पढ़ेंएक दिन सबका सूरज ढलता है. स्टूडियो सिस्टम के लिए यह ढलान साल 1947 में आई आज़ादी के साथ आया. विभाजन की त्रासदी ने हर चीज़ हिला कर रख दी.
इसमें ज़िदगियां तबाह हुईं, लोग बेघर हुए, कारोबार उजड़े, और फ़िल्म स्टूडियो भी इसकी चपेट में आए.
पहले ही विश्व युद्ध और भयंकर अकाल के थपेड़ों से जूझ रहे स्टूडियो, इस बार नहीं संभल पाए. लेकिन स्टूडियो सिस्टम के पतन की यह अकेली वजह नहीं थी.
अब तक स्टूडियो के वेतन पर काम करने वाले स्टार एक्टर्स और निर्देशकों को अहसास हो चुका था कि वे ख़ुद बड़े ब्रांड बन सकते हैं.
फ्रीलांसिग मॉडल अपनाकर पृथ्वीराज कपूर कामयाबी की सीढि़यां चढ़ ही चुके थे. वहीं, वी शांताराम और महबूब ख़ान ने स्टूडियो सिस्टम छोड़कर अपनी फ़िल्म कंपनियां शुरू कर लीं.
अब तक हवा का रुख़ बदल चुका था. फिल्म इंडस्ट्री में पैसे वाले व्यापारियों की भीड़ लग गई, जो फाइनेंसर बन कर इन फ्रीलांस स्टार्स, निर्माता और निर्देशकों पर दांव खेल रहे थे और पैसा कमा रहे थे.
पर्दे के पीछे बैठकर फैसले लेने वाले स्टूडियो मालिकों की जगह अब निर्देशक और स्टार हावी हो रहे थे. प्रभात और बॉम्बे टॉकीज़ इसी दौर में बंद हो गए.

भारतीय सिनेमा फ़िल्मकारों के व्यक्तिगत विज़न और स्टार पावर के युग में प्रवेश कर चुका था. फ़िल्म बनाने के इसी जुनून के साथ पृथ्वीराज कपूर के बेटे राज कपूर फिल्मों में संघर्ष कर रहे थे.
कपूर परिवार में जन्मे इस नौजवान ने बहुत कम उम्र में फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया था. लेकिन राज कपूर सिर्फ़ एक अभिनेता नहीं बनना चाहते थे, उन्हें फ़िल्म निर्माण और निर्देशन का भी जुनून था.
आरके स्टूडियो के बनने की कहानी बेहद दिलचस्प है. जब राज कपूर ने बतौर निर्माता-निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म 'आग' बनाने का फैसला किया, तो उनके पास सिर्फ 13 हज़ार रुपये थे.
उन्होंने इस योजना को रिश्ते में अपने मामा और बेहद क़रीबी विश्वा मेहरा को बताया. फ़िल्म के लिए मेकअप मैन, अभिनेता और डांसर्स की ज़रूरत थी, जो उस वक्त पृथ्वी थिएटर में काम करते थे.
पृथ्वी थिएटर के कर्मचारियों के सामूहिक प्रयासों ने राज कपूर के सपने को साकार करने में मदद की. इस फ़िल्म में हीरोइन के रोल के लिए राज ने नरगिस को चुना.
ये भी पढ़ेंबीस बरस की नरगिस तब तक फ़िल्मों में हीरोइन बन चुकी थीं. वो महबूब ख़ान जैसे जाने-माने निर्देशक के कैंप का हिस्सा थीं और स्टार थीं.
जबकि 22 साल के राज कपूर को अब तक अभिनेता के रूप में कोई ख़ास कामयाबी नहीं मिली थी और अभी निर्देशक के रूप में वो अपनी पहली फ़िल्म निर्देशित करने जा रहे थे.
फ़िल्म 'आग' के दौरान ही दोनों की नज़दीकियां बढ़ीं.
हालांकि उस वक़्त तक नरगिस की मां जद्दन बाई इसके सख़्त खिलाफ़ थीं और अक्सर या तो शूटिंग पर मौजूद रहतीं या फिर आउटडोर शूटिंग पर नरगिस को भेजने के लिए मना कर देतीं.
काफ़ी समय तक राज कपूर के असिस्टेंट और क़रीबी रहे मशहूर निर्देशक राहुल रवैल अपनी किताब 'राज कपूर बॉलीवुड के सबसे बड़े शोमैन' में बताते हैं, "उन दिनों, किसी फ़िल्म निर्माता का स्टूडियो से जुड़े रहना काफ़ी महत्त्वपूर्ण होता था, क्योंकि स्टूडियो एक ढका हुआ स्थान होता था, जहां सेट लगता था और सेट की कीमत भी दी जाती थी.
"राज कपूर ने ईस्टर्न स्टूडियो से जुड़ने का फैसला किया, जिसके मालिक मिस्टर लखानी थे. 'आग' के प्रोडक्शन में तीन लाख़ का खर्च आया था, उस समय यह एक बड़ी रकम थी. राज साहब इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि वे इस फ़िल्म से मुनाफा कमाएंगे, क्योंकि कहानी में गंभीरता थी. हालांकि इस फ़िल्म को आलोचकों ने सराहा, मगर बॉक्स ऑफिस पर फ़िल्म अधिक नहीं चली."
राज कपूर ने 'आग' में घाटे के बावजूद अगली फिल्म 'बरसात' बनाने का फैसला किया.
इस बार शूटिंग के लिए उन्होंने निर्देशक के आसिफ़ के रूपतारा स्टूडियो को साइन किया.
लेकिन कोई फाइनेंसर ऐसे निर्माता-निर्देशक पर पैसे नहीं लगाना चाहता था जो 'आग' में पहले ही अपना हाथ जला चुका हो. ऐसे समय में पिता पृथ्वीराज कपूर ने उनकी मदद की.
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रोमांटिक फ़िल्म बरसात के मशहूर गीत 'हवा में उड़ता जाए' गीत को राज कपूर ने कश्मीर की हसीन वादियों में शूट करने का फैसला किया, जहां अब तक कोई फ़िल्म शूट नहीं हुई थी.
वो दौर स्टूडियो में शूटिंग का था. लेकिन पूरी कास्ट-क्रू को ले जाना, भारी उपकरण पहुंचाना और ठहरने का इंतज़ाम करना बहुत महंगा था.
राज कपूर नए प्रयोग करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने कैमरामैन जाल मिस्त्री के साथ पहले कश्मीर जाकर हल्के ऐमो कैमरे से शॉट्स लिए.
बाद में इन सीन को महाबलेश्वर में शूट किए गए दृश्यों के साथ मिक्स कर दिया.
राहुल रवैल लिखते हैं, "उनका अगला कदम साउंड रिकॉर्डिंग के सभी उपकरणों को रखने के लिए एक साउंड ट्रैक को खरीदना था. तीसरा चरण पेशेवर 35 एमएम मिशेल एनसी कैमरे को खरीदना था. यह संपत्ति फिल्म निर्माण के उनके जुनून से उपजी थी और एक स्टूडियो के मालिक होने के लिए जरूरी शुरुआती प्रयास भी थे."
साल 1949 में रिलीज़ हुई 'बरसात' ने कामयाबी के पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए और उस समय तक की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म बन कर उभरी.
बरसात उनकी दूसरी फ़िल्म थी और नरगिस के साथ उनकी जोड़ी सुपरहिट साबित हुई. इसी साल महबूब ख़ान निर्देशित राज कपूर, नरगिस और दिलीप कुमार की 'अंदाज़' भी सुपरहिट साबित हुई थी.
नई कामयाबी ने राज कपूर को हिम्मत भी दी और पैसे दिए कि वो स्टूडियो बनाने के सपने पर काम कर सकें.
राज कपूर ने नरगिस और पृथ्वीराज कपूर के साथ अपनी अगली फ़िल्म 'आवारा' भी अनाउंस कर दी.
14 दिसंबर 1949 को राज कपूर के जन्मदिन पर उनकी अगली फ़िल्म 'आवारा' का मूहूर्त रूप तारा स्टूडियो में हुआ जो बंबई के दादर में था.
आशा स्टूडियो में 'आवारा' के प्रोडक्शन की बात तय हुई.
राहुल रवैल के मुताबिक, "राज साहब ने नरगिस जी के साथ एक सीन की योजना बनाई, जिसमें वो स्विमिंग कॉस्ट्यूम में तालाब के भीतर जाएंगी, हालांकि अधिकतर फ़िल्म स्टूडियो के सेट पर फ़िल्माई गई थी, इस खास दृश्य के लिए उन्हें एनएससीआई क्लब के स्विमिंग पूल में जाना था."
"नरगिसजी को इतने लोगों के बीच स्विमिंग कॉस्ट्यूम पहनने में झिझक थी. नरगिसजी को मनाने के लिए, उन्होंने बिना अनुमति के स्टूडियो में ज़मीन खुदवा दी और शूट के लिए तालाब बनवा दिया. राज साहब को स्टूडियो के मालिकों ने इसके लिए कड़ी फटकार लगाई और अस्सी हज़ार रुपये के भारी जुर्माने की मांग की."
राज कपूर ने स्टूडियो का जुर्माना तो भर दिया, लेकिन बात उनके दिल पर लग गई थी.
उन्होंने स्टूडियो के मालिकों से कहा कि उन्हें पैसे की परवाह नहीं है, लेकिन अपनी फ़िल्मों के क्रिएटिव फैसले के लिए वो किसी की इजाज़त नहीं लेना चाहते.
अपने फ़िल्मी सपनों को आकार देने के लिए राज कपूर को एक ऐसी जगह चाहिए थी, जहां वह बिना किसी की दखलअंदाज़ी के अपनी कहानियां कह सकें.
उन्होंने स्टूडियो मालिकों से कहा, "मैं दोबारा कभी इस स्टूडियो में शूट नहीं करूंगा."
'आवारा' की बाक़ी शूटिंग उन्होंने श्रीकांत स्टूडियो में की, जो बंबई के चेंबूर इलाक़े में था.
चेंबूर आज एक व्यस्त इंडस्ट्रियल एरिया के तौर पर जाना जाता है, लेकिन साल 1950 के दौर में यह शहर के बाहरी इलाक़े में एक शांत, हरी-भरी बस्ती थी.
चेंबूर में राज कपूर का भी काफी समय बीता था. श्रीकांत स्टूडियो के बिलकुल क़रीब दो एकड़ ज़मीन ख़ाली पड़ी थी. यह ज़मीन राज कपूर को अपने स्टूडियो के लिए पसंद आ गई.
राहुल रवैल अपनी किताब में लिखते हैं, "उस ज़मीन की कीमत उस समय डेढ़ लाख थी और उन दिनों उनके पास इतनी बड़ी रकम नहीं थी, फिर भी वे अपनी कला के प्रति समर्पित थे और स्टूडियो को वे अपनी रचनात्मकता के प्राकृतिक विस्तार के रूप में देखते थे."
राज कपूर ने दूसरे निर्माताओं की फ़िल्में साइन करने के साथ साथ उन्होंने प्रतिज्ञा पत्र के ज़रिए भी पैसे उधार लिए और आरके स्टूडियो बनाने के लिए ज़मीन ख़रीद ली.
इस सपने में उनका साथ देने वाली नरगिस अब तब उनकी ज़िंदगी और उनकी फ़िल्मों का अहम हिस्सा बन चुकी थीं.
लेखिका मधु जैन ने अपनी किताब 'द कपूर्स' में लिखा है, "जब बरसात बन रही थी, नरगिस पूरी तरह राज कपूर के लिए प्रतिबद्ध हो चुकी थीं. यहां तक कि जब स्टूडियो को पैसे की कमी हुई तो नरगिस ने अपनी सोने की चूड़ियां बेच दीं. उन्होंने आरके फ़िल्म्स की ख़ाली तिजोरी भरने के लिए दूसरे निर्माताओं की फ़िल्मों में काम भी किया."

राज कपूर की जीवनी 'राज कपूर द फैबुलस शोमैन' में लेखक बनी रूबेन लिखते हैं, "सितंबर1950 में राज कपूर ने अपने वफादार तकनीशियनों, दोस्तों और क़रीबी लोगों के साथ चेंबूर की ज़मीन पर आरके स्टूडियोज़ का मुहूर्त किया और फिर धीरे-धीरे ये स्टूडियो खड़ा होने लगा."
लेकिन, सारा पैसा और समय जब स्टूडियो के जुनून में ख़र्च होने लगा तो इसका राज कपूर के परिवार पर असर पड़ने लगा.
राहुल रवैल के मुताबिक़, कृष्णा आंटी (राज कपूर की पत्नी) किराए के घर की जगह अपना घर चाहती थीं लेकिन राज कपूर पहले स्टूडियो तैयार करना चाहते थे और उससे पैसे कमाने के बाद अपना घर लेना चाहते थे.
'आवारा' की शूटिंग ज़ोर-शोर से चल रही थी और राज कपूर एक भव्य ड्रीम सीक्वेंस अपने स्टूडियो में फ़िल्माना चाहते थे, जिसकी उस समय तक छत ही नहीं थी. यानी दिन की रोशनी से बचने के लिए सिर्फ़ रात को शूटिंग हो सकती थी.
जब तक शूटिंग का समय आया आरके स्टूडियो की दीवारें तक़रीबन आठ फुट ऊंची बन चुकी थीं.
'राज कपूर द फैबुलस शोमैन' में राज कपूर के क़रीबी और मामा विश्वा मेहरा कहते हैं, "दीवारें खड़ी हो चुकी थीं लेकिन कोई छत थी ही नहीं. राज बोले- इससे कोई फ़र्क़ पड़ता है क्या! हम अपने स्टूडियो में ही ये ड्रीम सीक्वेंस शूट करेंगे. और हमने ऐसा ही किया."
'आवारा' भी ज़बरदस्त हिट रही और इतना पैसा कमाया कि आरके स्टूडियो को फ़िल्मों की शूटिंग के लिए पूरी तरह तैयार कर दिया. बाद में यहां एक एडिटिंग रूम और प्रीव्यू थिएटर भी बना जो कि छत पर था.
स्टूडियो के भीतर राज कपूर का मशहूर कॉटेज भी था, जिसे वो अपनी कला का मंदिर मानते थे.
चेंबूर में फैला ये दो एकड़ का स्टूडियो हिंदी सिनेमा का एक जीवंत स्मारक रहा. यहीं मशहूर धुनें बनीं, यादगार कहानियां गढ़ी गईं और कई क्लासिक हिंदी फ़िल्में निकलीं.
शंकर-जयकिशन से लेकर शैलेंद्र तक और बॉबी के ऋषि-डिंपल से लेकर राम तेरी गंगा मैली की मंदाकिनी तक, कई कलाकारों ने अपना बेहतरीन काम आरके स्टूडियो के लिए किया.
इसका नाम भले ही राज कपूर के नाम पर था, लेकिन कपूर खानदान इसे बनाने में नरगिस के योगदान को नकारता नहीं है.
मधु जैन अपनी किताब 'द कपूर्स' में लिखती हैं, "आरके वाकई नरगिस-राज कपूर का एक बैनर था. वह एक साझेदार थीं, जिन्होंने उनके साथ उनके सुनहरे वक़्त के ज्यादातर अरसे में आरके फ़िल्म्स की पतवार संभाल रखी थी."
"उन दोनों ने साथ-साथ सोलह फिल्में बनाईं. यह साझेदारी साल 1948 में 'आग' से शुरू होकर 1956 में 'जागते रहो' पर ख़त्म हुई."
आरके स्टूडियो के मुख्य गेट पर बना लोगो उसकी पहचान था. एक खूबसूरत छवि जो राज कपूर के रोमांटिक और म्यूज़िकल सिनेमा का प्रतीक बन गई.
यह डिज़ाइन फ़िल्म बरसात के उस मशहूर सीन से लिया गया था, जिसमें राज कपूर हाथ में वायलिन लिए खड़े हैं और नरगिस उनकी बाहों में झुक जाती हैं.
इस आइकॉनिक लोगो को प्रसिद्ध डिज़ाइनर एमआर अचरेकर ने बनाया था और इसे पेंट करने का काम किया था बालासाहेब ठाकरे ने, जो आगे चलकर शिवसेना के संस्थापक बने.
लोगो के नीचे भगवान शिव की एक बड़ी मूर्ति थी. हर नई फ़िल्म के मुहूर्त पर राज कपूर के पिता, पृथ्वीराज कपूर, शिवजी की पूजा करते थे.
आरके स्टूडियोज़ में राज कपूर के कमरे के पीछे नरगिस का भी एक कमरा हुआ करता था, जो जस का तस बना रहा. नरगिस का सामान भी उसी तरह से रखा रहा था, जैसा वो छोड़कर गई थीं.
राज कपूर ने नरगिस से अलगाव के क़रीब बीस साल बाद साल 1974 में एक इंटरव्यू में बताया कि जब नरगिस ने अलग होने का फैसला किया तो वो फिर कभी आरके स्टूडियोज़ नहीं लौटीं.
पुराने स्टूडियो, जैसे प्रभात और बॉम्बे टॉकीज़ किसी बड़े संगठन की तरह चलते थे.
वहां अभिनेता, निर्देशक और तकनीशियन सब वेतन पर रखे जाते थे. फ़िल्म निर्माण का पूरा सिस्टम लेखन, शूटिंग, एडिटिंग और वितरण; सब कुछ स्टूडियो के अंदर ही होता था.
यह किसी फैक्ट्री की तरह था, जहां एक के बाद एक फ़िल्में बनती रहती थीं. यहां किसी एक व्यक्ति की रचनात्मक सोच से ज़्यादा, एक संगठित व्यवस्था काम करती थी.
वहीं, आरके स्टूडियो पूरी तरह से राज कपूर के सपनों पर टिका एक पारिवारिक स्टूडियो था, जहां उनकी सोच ही सबसे ऊपर थी. यहां हर फ़िल्म एक सपने की तरह गढ़ी जाती थी.
फ़िल्म के लिए पहले पैसा जुटाया जाता, फिर कलाकारों और तकनीशियनों को काम पर रखा जाता.
बाद में, इसे दूसरी फ़िल्मों की शूटिंग के लिए किराए पर भी दिया जाने लगा. स्टूडियो सिस्टम ख़त्म होने के बाद यही भारत में यही मॉडल किसी ना किसी शक्ल में जारी रहा.
'आवारा' के बाद की राज कपूर की सभी यादगार फिल्में, श्री 420, संगम, मेरा नाम जोकर, सत्यम शिवम सुंदरम, बॉबी और राम तेरी गंगा मैली तक के भव्य सेट इसी स्टूडियो में बने.
यही नहीं इस स्टूडियो में दूसरे मशहूर निर्देशकों ने अपनी कई मशहूर फ़िल्मों की शूटिंग की. फ़िल्मकार मनमोहन देसाई का ये मनपसंद स्टूडियो था.
आरके स्टूडियो सिर्फ फ़िल्मों के लिए नहीं, बल्कि अपनी शानदार होली पार्टियों के लिए भी मशहूर था.

साल 1988 में राज कपूर के निधन के बाद, स्टूडियो की सक्रियता धीरे-धीरे कम हो गई.
साल1990 के दशक में यहां फ़िल्मों की शूटिंग कम होने लगी और इसका इस्तेमाल टीवी सीरियल और विज्ञापनों की शूटिंग के लिए ज़्यादा किया जाने लगा.
इसकी वजह अब मुबंई में मौजूद कई आधुनिक स्टूडियो और शूटिंग फ्लोर्स भी थे जो शहर से इतनी दूर नहीं थे. इसलिए आरके में धीरे-धीरे काम कम होने लगा.
इतने बड़े स्टूडियो के रखरखाव का खर्चा और जिम्मेदारी भी बड़ी थी.
साल 2017 में स्टूडियो में आग लगने से इसकी विरासत को गहरा नुक़सान हुआ. स्टेज, उपकरण यहां तक कि मशहूर कॉस्टयूम विभाग जिसमें सारी क्लासिक फिल्मों से जुड़े कॉस्ट्यूम और दूसरी कीमती विरासत भी जल गई.
साल 2018 में कपूर परिवार ने इसे बेचने का फैसला किया और साल 2019 में गोदरेज प्रॉपर्टीज ने इसे ख़रीद लिया. आरके स्टूडियो अब नहीं है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी पहचान हमेशा बनी रहेगी.
राज कपूर के बड़े बेटे रणधीर कपूर ने एक बार एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके पिता ने उनसे कहा था कि जब वह मरें तो उन्हें उनके स्टूडियो में ले आना, मुमकिन है कि उस रोशनी की चमक के बीच वह फिर से उठ जाएं और चिल्लाएं- एक्शन, एक्शन.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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