मदर इंडिया जैसी फ़िल्में बनाने वाले महबूब ख़ान के स्टूडियो की कहानी, जो बन गया सितारों का 'महबूब'

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Mother India Film Poster

भारतीय सिनेमा की क्लासिक फ़िल्मों की बात जब कभी होती है तो उसमें मदर इंडिया का नाम ज़रूर आता है.

ये शाहकार फ़िल्म महबूब ख़ान के महबूब स्टूडियो से निकली हुई है. महबूब ख़ान और उनकी फ़िल्म कंपनी की कहानी एक इंसान के जुनून की कहानी है जो खुद तो पढ़े-लिखे नहीं थे मगर उनकी बेमिसाल फ़िल्में आज भी फ़िल्म इंस्टीट्यूट्स में पढ़ाई जाती हैं.

1907 में गुजरात के बिलिमोरा में जन्में महबूब ख़ान के पिता पुलिस कॉन्स्टेबल थे.

उन्होंने बेटे को पढ़ाने की कोशिश तो की लेकिन बेटा पढ़ाई से दूर भागता था. थोड़ा बड़ा हुआ तो नाटकों और फ़िल्मों का शौक लग गया. वो एक्टर बनना चाहता था. 16 साल की उम्र में बंबई भाग गया, मगर पिता पकड़ लाए और शादी करवा दी. घर तो बस गया, मगर सिनेमा का ख़्वाब नहीं छूटा और फिर एक दिन किस्मत ने करवट ली…

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BBC घोड़ों के ज़रिए फ़िल्मों तक पहुंचने का रास्ता
Getty Images विदेशी फिल्मकारों के साथ महबूब ख़ान

महबूब की मुलाक़ात हुई नूर मोहम्मद नाम के शख़्स से, जो फ़िल्मों की शूटिंग के लिए घोड़े सप्लाई करते थे. महबूब दोबारा बंबई आ गए और नूर मोहम्मद के अस्तबल में नौकरी कर ली. उन्हें घोड़ों के ज़रिए फ़िल्मों तक पहुंचने का रास्ता नज़र आने लगा था.

यहीं काम करते-करते एक दिन महबूब शूटिंग के लिए घोड़े लेकर गए. ये दक्षिण भारत के एक फ़िल्म निर्माता चंद्रशेखर की फ़िल्म थी. इसी सेट पर उन्होंने शूटिंग पर मदद करनी शुरू की और देखा कि एक सेट पर होता क्या है.

शूटिंग देखकर एक्टर बनने का ख़्वाब फिर वापस आ गया. उन्होंने चंद्रशेखर से अनुरोध किया तो चंद्रशेखर ने महबूब को स्टूडियो में असिस्टेंट डायरेक्टर का काम दे दिया. लगभग तीन साल बाद महबूब ने बतौर एक्स्ट्रा निर्माता आर्देशीर ईरानी की इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी ज्वाइन कर ली. लेकिन धीरे-धीरे उनकी समझ में आ गया था कि कोई उन्हें हीरो नहीं बनाएगा.

अब वो कहानियों पर काम करने लगे.

1935 में सागर मूवीटोन के लिए 28 साल के महबूब ने अपनी पहली फ़िल्म का निर्देशन किया. फ़िल्म थी अल हिलाल. फ़िल्म ने अच्छी कमाई की और महबूब को और फ़िल्में मिल गयीं.

उन्होंने एक के बाद एक अलग विषय पर फ़िल्में बनायी. अगली फ़िल्म डेक्कन क्वीन (1936) एक्शन फ़िल्म थी, तो फ़िल्म मनमोहन (1937) देवदास पर आधारित रोमांटिक फ़िल्म थी, वहीं जागीरदार (1937) एक सस्पेंस फ़िल्म थी.

मज़बूत महिला किरदारों पर बनी फ़िल्मों से सफलता Harper Collins एक फ़िल्म थी औरत जो एक गांव की महिला और उसके बच्चे की कहानी थी. ये कहानी महबूब ख़ान के दिल के इतनी क़रीब थी कि इसी फ़िल्म को रीमेक करके उन्होंने वर्षों बाद मदर इंडिया बनायी

हालांकि, जिस फ़िल्म ने उन्हें बड़े निर्देशकों की जमात में खड़ा किया वो थी 1938 की फ़िल्म हम, तुम और वो. ये एक साहसी महिला की कहानी थी जो समाज के विरुद्ध अकेली खड़ी हो जाती है. यहीं से मज़बूत महिला किरदार महबूब की फ़िल्मों की ख़ासियत बन गए.

अगली फ़िल्म थी औरत जो एक गांव की महिला और उसके बच्चे की कहानी थी. एक ग्रामीण औरत के संघर्ष की ये कहानी महबूब ख़ान के दिल के इतनी क़रीब थी कि इसी फ़िल्म को रीमेक करके उन्होंने वर्षों बाद मदर इंडिया बनायी जो उनकी कालजयी फ़िल्म मानी जाती है.

दोनों फ़िल्मों में किरदारों के नाम तक एक ही थे. 'औरत' की नायिका सरदार अख़्तर सिर्फ उनकी फ़िल्म की हीरोइन नहीं बनीं, बल्कि बाद में महबूब खान की दूसरी पत्नी भी बनीं.

हालांकि इसी साल महबूब की एक फैंटेसी फ़िल्म अलीबाबा भी रिलीज़ हुई लेकिन ज्यादा चर्चा में रही उनकी फ़िल्म बहन (1941). ये भी एक महिला-प्रधान फ़िल्म थी.

कहानी एक भाई-बहन के स्नेह की, जहां बड़ा भाई अपनी छोटी बहन से इतना प्रेम करता है कि उसे खोने के डर से उसकी शादी ही नहीं करना चाहता.

यह विषय जितना भावनात्मक था, उतना ही जटिल भी. स्क्रीन पर कहानी कहने का महबूब का सरल ड्रामाई अंदाज़, भारतीय कहानियां और भव्यता ने उनकी फ़िल्मों को एक अलग दर्शक वर्ग खड़ा कर दिया था.

दूसरे विश्व युद्ध के दौर में रिलीज़ उनकी फ़िल्म रोटी पूंजीवाद पर करारा प्रहार थी. समाज में व्याप्त असमानता, शोषक और शोषित की मार्क्सवादी विचारधारा का असर उनकी फ़िल्मों में खूब नज़र आता था. फ़िल्म रोटी बाहर के निर्माताओं और स्टूडियो के लिए उनकी आख़िरी फ़िल्म थी.

अब सपना अपनी फ़िल्म कंपनी और अपने स्टूडियो का था. यही सपना आने वाले सालों में 'महबूब स्टूडियो' के रूप में साकार हुआ, जहां से उन्होंने भारतीय सिनेमा को कई अनमोल कृतियां दीं.

कम्युनिस्ट प्रतीक हथौड़ा और दरांती था महबूब प्रोडक्शन्स का लोगो ANI इसी फ़िल्म के साथ संगीतकार नौशाद महबूब स्टूडियो के मुख्य संगीतकार बन गए

1943 में महबूब ख़ान ने अपनी फ़िल्म कंपनी महबूब प्रोडकशंस की शुरुआत की.

अपने सिनेमाई दृष्टिकोण और विचारधारा के मुताबिक उन्होंने प्रतीक चिह्न चुना हथौड़ा और दरांती जो कम्युनिज़म का वैश्विक प्रतीक माना जाता है.

ये ज़ाहिर करता था कि वे आम दर्शकों के लिए शोषितों और मेहनतकश वर्ग की कहानियों को पर्दे पर उतारना चाहते थे.

इस लोगो के साथ वो मशहूर शेर भी आता था: मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है.

हिंदी सिनेमा में 'मुस्लिम सोशल' जॉनर की शुरुआत की Getty Images महबूब स्टूडियो के एक गोदाम में रखी फिल्मों की रील

बॉम्बे टॉकीज़ की किस्मत (1943) इसी साल रिलीज़ हुई और भारतीय सिनेमा की पहली ब्लॉकबस्टर बनी. हीरो अशोक कुमार बड़े स्टार बन गए.

महबूब ख़ान ने अशोक कुमार को एक लाख रुपए में महबूब प्रोडकशंस की पहली फ़िल्म के लिए साइन किया जो उस ज़माने में किसी भी एक्टर को मिली सबसे बड़ी रकम थी.

ये फ़िल्म थी नजमा (1943) जिसके साथ हिंदी सिनेमा में एक नया जॉनर शुरू हुआ-मुस्लिम सोशल.

इससे पहले तक हिंदी सिनेमा में बनने वाली फ़िल्में या तो पौराणिक कथाओं पर आधारित होती थीं या फिर ऐतिहासिक औऱ सामाजिक फ़िल्में. ज़्यादातर कहानियों के पात्र हिंदू समाज के ही होते थे.

नजमा की कामयाबी के बाद दशकों तक इसी शैली की 'मुस्लिम सोशल' फ़िल्मों में मुस्लिम पात्र और मुस्लिम समाज से जुड़ी कहानियां पर्दे पर उतारी जाती रहीं.

लेकिन महबूब खान दोहराव में यक़ीन नहीं रखते थे. अगली फ़िल्म में उन्होंने न बड़े स्टार लिए, न 'मुस्लिम सोशल' का सहारा लिया. इस बार फ़िल्म तक़दीर से उन्होंने एक नई अभिनेत्री नरगिस को लॉन्च किया और उन्हें स्टार बना दिया.

महबूब की हिट फ़िल्मों की लय जारी थी, इसलिए बड़े-बड़े सितारे उनके साथ काम करने को बेताब रहते थे. अगली फ़िल्म में उन्होंने उस दौर की सबसे चर्चित कास्टिंग की-सुरेंद्र, सुरैया और नूरजहां, तीनों उस समय के 'सिंगिंग सेंसेशन'. नतीजा?

1946 में 'अनमोल घड़ी' रिलीज़ हुई और साल की सबसे बड़ी हिट बन गई. इसके गीतों ने धूम मचा दी और इसी फ़िल्म के साथ संगीतकार नौशाद महबूब स्टूडियो के मुख्य संगीतकार बन गए-महबूब की आखिरी फ़िल्म तक उनका यह साथ बना रहा.

मनोरंजक कमर्शियल फ़िल्में बनाने के बावजदू महबूब हर फ़िल्म के ज़रिए सामाजिक मुद्दे उठाते रहे. उनकी 1947 की फ़िल्म 'ऐलान' मुस्लिम रस्मों-रिवाज पर सवाल उठाती थी और मुसलमानों की शिक्षा व सुधार पर ज़ोर देती थी. फ़िल्म विवादों में घिरी, इसे बैन करने की मांग उठी, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर हिट रही.

अब तक महबूब प्रोडकशंस की चारों फ़िल्में सुपरहिट हो चुकी थीं और बैनर पूरी तरह स्थापित हो गया था. अगली बड़ी फ़िल्म के साथ-साथ स्टूडियो का सपना भी आकार लेने लगा था.

शहर के केंद्र के क़रीब बनाया स्टूडियो Getty Images महबूब स्टूडियो

महबूब खान सिर्फ दूरदर्शी निर्देशक ही नहीं, बल्कि रणनीतिक सोच रखने वाले फ़िल्मकार भी थे. अब तक के फ़िल्म स्टूडियो जैसे फ़िल्मिस्तान और बॉम्बे टॉकीज़ गोरेगांव और मलाड जैसे मुंबई के बाहर या दूरदराज़ के इलाकों में थे.

महबूब ने फैसला किया कि अपने स्टूडियो को मुंबई के केंद्र यानी सेंट्रल मुंबई के करीब रखेंगे. स्टूडियो के लिए पसंद आया बांद्रा वेस्ट जिसके आसपास के इलाकों में हिंदी सिनेमा के कामयाब स्टार और प्रोड्यूसर्स बसने लगे थे.

हॉलीवुड की भव्यता और स्टाइल से प्रभावित अपनी अगली फ़िल्म भी उन्होंने लॉन्च कर दी जिसमें थे उस दौर के तीन बड़े स्टार- दिलीप कुमार, राज कपूर और नरगिस.

फ़िल्म थी अंदाज़ (1949) जो पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए उस समय तक की हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म बन गयी. इंडस्ट्री में महबूब स्टूडियो का डंका बज रहा था.

तीन साल बाद, उन्होंने फिर एक धमाका किया-भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म, 'आन' (1952). दिलीप कुमार और नादिरा स्टारर यह फ़िल्म हॉलीवुड फ़िल्मों से प्रभावित एक भव्य एक्शन ड्रामा थी.

इसका शानदार कलेवर और लार्ज-स्केल प्रोडक्शन दर्शकों को चकित कर गया. बॉक्स ऑफिस पर यह जबरदस्त ब्लॉकबस्टर साबित हुई और महबूब ख़ान का 'अनबीटेन' रिकॉर्ड अब तक क़ायम था.

महबूब स्टूडियो की नींव और पहली फ्लॉप
Getty Images फिल्म अमर में हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार एक रेप करने वाला हीरो और उसके नैतिक संघर्ष को दिखाया गया था

इस कामयाबी के बाद ही मुंबई के बांद्रा वेस्ट में महबूब स्टूडियो की नींव रखी गयी, जिसका निर्माण 1954 में पूरा हुआ. स्टूडियो में 6 बड़े शूटिंग फ्लोर और एक आधुनिक साउंड स्टूडियो बनाया गया.

स्टूडियो के निर्माण के साथ ही महबूब एक और महत्वाकांक्षी फ़िल्म पर काम कर रहे थे-'अमर'. यह दिलीप कुमार के साथ उनकी तीसरी फ़िल्म थी, लेकिन इस बार कहानी आम नहीं थी.

अमर (दिलीप कुमार) एक वकील था, जो अपनी प्रेमिका अंजु (मधुबाला) से प्यार करता है, लेकिन भावनाओं के ज्वार में एक गांव की मासूम लड़की सोनिया (निम्मी) का बलात्कार कर बैठता है.

हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार एक रेप करने वाला हीरो और उसके नैतिक संघर्ष को दिखाया गया था. दिलीप कुमार की चमकदार स्टारडम के बावजूद दर्शकों ने इस किरदार को नकार दिया.

फ़िल्म ने विवादों को जन्म दिया-क्या भारतीय फ़िल्मों का हीरो ऐसा होगा? क्या महबूब खान का जादू फीका पड़ने लगा था? आलोचनाओं के बावजूद, महबूब खान इस फ़िल्म को अपनी श्रेष्ठ कृतियों में से एक मानते रहे.

क्या महबूब का जादू बरकरार रहेगा? Harper collins फ़िल्म निर्देशक महबूब खां, उनकी पत्नी (बाएं) और नरगिस (दाएं)

सवाल का जवाब महबूब ख़ान को अपनी ही 17 साल पुरानी फ़िल्म में मिला

1927 में कैथरीन मेयो नाम की एक अमेरिकी पत्रकार ने 'मदर इंडिया' नाम की एक विवादास्पद किताब लिखी थी, जिसमें भारतीय महिलाओं, संस्कृति और समाज पर कई अपमानजनक बातें भी थीं. महबूब खान ने फैसला कि महबूब स्टूडियो की अब तक की सबसे भव्य और महंगी फ़िल्म का नाम यही होगा 'मदर इंडिया' जो सिल्वर स्क्रीन पर गूंजेगा और भारतीय आत्मा की सच्ची तस्वीर पेश करेगा. कहानी के लिए उन्होंने 17 साल पहले बनायी अपनी ही फ़िल्म औरत को चुना.

लेकिन 'मदर इंडिया' का दायरा महबूब खान ने इतना विशाल कर दिया कि इसकी नायिका राधा की कहानी पूरे भारत की कहानी बन गई. उनके लिए राधा सिर्फ़ एक महिला नहीं थी, बल्कि खुद भारत का प्रतीक थीं-संघर्षों से जूझती हुई, लेकिन अपने उसूलों पर अडिग. जो चुनौतियां राधा के सामने थीं, वही पूरे देश के सामने भी थीं. साहस, त्याग और आत्मसम्मान के साथ उन्हें पार करने का संकल्प इस फ़िल्म की आत्मा बन गई.

हीरोइन के लिए उन्होंने नरगिस को चुना, जो अब तक ग्लैमरस और शहरी किरदारों के लिए जानी जाती थीं. लेकिन इस फ़िल्म में उन्होंने एक अनपढ़ गांव की महिला का किरदार निभाया और यह उनका करियर-डिफाइनिंग रोल साबित हुआ.

40 लाख रुपये में बनी ये फ़िल्म उस समय तक देश में बनी सबसे महंगी फ़िल्म थी. महबूब के लिए ये सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं थी, एक जुनून था. यहां तक कि संगीतकार नौशाद इस फ़िल्म के लिए इतने समर्पित थे कि पूरे एक साल तक उन्होंने कोई दूसरी फ़िल्म साइन नहीं की. इस फ़िल्म से जुड़ी बहुत सी कहानियां हैं.

जैसे राज-कपूर नरगिस की जोड़ी टूटी, सुनील दत्त-नरगिस की शादी और खुद इस फ़िल्म की मेकिंग की कहानी.

लेकिन 1957 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म ने कामयाबी का नया इतिहास बना दिया. जवाहरलाल नेहरू ने इस फ़िल्म को नए भारत की गाथा कहा था.

मदर इंडिया भारत की पहली फ़िल्म थी जिसे एकेडमी अवॉर्ड (ऑस्कर) में भेजा गया था. हालांकि महज एक वोट से फ़िल्म ऑस्कर जीतने से चूक गई. ये फ़िल्म महबूब की सबसे बेहतरीन फ़िल्म और भारतीय फ़िल्मों का एक महाकाव्य बन गयी. कोई फ़िल्मकार इससे आगे अब कर भी क्या सकता था.

मदर इंडिया के साथ महबूब स्टूडियो ने अपने शिखर को छू लिया था. महबूब स्टूडियो की अगली फ़िल्म का इंतज़ार बेसब्री से था. लेकिन 1962 में रिलीज़ हुई 'सन ऑफ इंडिया' हर मामले में कमज़ोर फ़िल्म साबित हुई और बुरी तरह फ्लॉप हो गयी. ये फ़िल्म महबूब निर्देशित अंतिम फ़िल्म साबित हुई.

नेहरू की मौत का सदमा Getty Images महबूब स्टूडियो में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान अभिनेता मनोज बाजपेयी और अभिनेत्री तब्बू

महबूब अपनी अगली फ़िल्म पर काम कर रहे थे. मगर 27 मई 1964 को ख़बर आयी भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन की. कहते हैं कि अपने नायक की मौत की ख़बर से महबूब को इतना गहरा सदमा पहुंचा कि अगले ही दिन उनकी हार्ट अटैक से मौत हो गई.

महबूब की मौत के बाद स्टूडियो की आर्थिक हालत बिगड़ने लगी. उनके तीन बेटे थे मगर कोई भी फ़िल्म निर्देशक नहीं था. एक फ़िल्म निर्माण कंपनी के तौर पर ये ढल गया. मगर एक स्टूडियो के तौर पर महबूब स्टूडियो शायद अकेला स्टूडियो है जहां आज भी बड़ी-बड़ी फ़िल्में और टीवी शोज़ की शूटिंग होती है.

महबूब स्टूडियो में गुरु दत्त और देव आंनद की मशहूर फ़िल्में भी बनीं

सिर्फ़ महबूब खान के सपनों का मंदिर ही नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा के कई स्टार्स का ये 'महबूब' स्टूडियो था. यहीं पर गुरु दत्त ने अपनी अमर फ़िल्म 'कागज़ के फूल' की दुनिया बसाई. ये स्टूडियो अभिनेता-निर्देशक देव आनंद का भी मानो दूसरा घर था. उनकी प्रोडक्शन कंपनी नवकेतन की फ़िल्म्स यहीं से चलती थी.

'गाइड' और 'हम दोनों' जैसी फ़िल्मों का निर्माण भी यहीं हुआ. नए दौर की फ़िल्मों में यहां संजय लीला भंसाली की 'ब्लैक' औऱ शाहरुख ख़ान की 'चेन्नई एक्सप्रेस' जैसी फ़िल्मों की शूटिंग हुई. जहां पुराने स्टूडियो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं, इस स्टूडियो में अब भी लगातार 'लाइट्स, कैमरा, एक्शन' गूंजता है.

बान्द्रा में स्टूडियो क़ायम करने की महबूब की दूरदर्शिता वाक़ई काम आयी.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित

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