ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को रोज़गार देने के लिए महिला उद्यमी क्यों ज़रूरी हैं?
एक नए अध्ययन में पता चला है कि महिला उद्यमियों को बढ़ावा देने से महिला कर्मचारियों की संख्या काफी हद तक बढ़ सकती है.
इसमें कहा गया है कि महिलाओं के नेतृत्व वाले कारोबार के ज़रिए महिलाओं के लिए अधिक मौके पैदा करके न केवल आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया जा सकता है बल्कि महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को भी सशक्त किया जा सकता है.
एक ऐसी दुनिया के बारे में सोचिए जहां महिलाओं की आधी आबादी होने के बाद भी बिज़नेस जगत में उनके पास पांचवें हिस्से से भी कम का मालिकाना हक़ हो.
ये सच्चाई है जिसे वर्ल्ड बैंक ने 2006 से 2018 तक 138 देशों में किए गए एक सर्वे में उजागर किया है.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिएदिलचस्प बात ये है कि कैसे महिला-स्वामित्व वाले व्यवसाय दूसरी महिलाओं को सशक्त बना रहे हैं.
पुरुष स्वामित्व वाली कंपनी में बस 23% महिलाएं काम करती हैं. लेकिन महिला स्वामित्व वाले व्यवसायों में महिलाओं की संख्या उससे कहीं ज़्यादा है.
पुरुष स्वामित्व वाली कंपनी में केवल 6.5% में ही शीर्ष प्रबंधक के रूप में कोई महिला है. खास बात ये है कि महिला स्वामित्व वाली आधी से ज़्यादा फर्मों का नेतृत्व महिलाएं ही करती हैं.
ये भी पढ़ें-भारत में ये चीज़ और भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण है. महिला श्रम की भागीदारी और उद्यमी यहां कम हैं. पिछले 30 सालों में कार्यबल में महिलाओं की कुल संख्या में कोई खास बदलाव नहीं आया है.
लेकिन जब व्यवसायों में महिलाओं की बात आती है तो ये बेहतर होता दिखाई पड़ रहा है.
14 प्रतिशत के क़रीब उद्यमी महिलाएं हैं और सूक्ष्म, लघु और मध्यम (एमएसएमई) उद्योगों में एक महत्वपूर्ण हिस्सा उनका है.
स्टेट ऑफ इंडियाज़ लाइवलीहुड रिपोर्ट 2023 के अनुसार, वे औद्योगिक उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं और कार्यबल के एक बड़े हिस्से को रोज़गार देती हैं.
के अनुसार, "भारत में ज़्यादातर एमएसएमई एक छोटा व्यवसाय होता है जिसमें से कई महिलाएं स्वामित्व वाले व्यवसाय में अकेले ही व्यापार कर रही हैं. जबकि कुछ महिला स्वामित्व वाले उद्यम बड़ी संख्या में कर्मचारियों को नियुक्त करते हैं, वहीं ज़्यादातर बहुत कम श्रमिकों के साथ काम करते हैं."
अगर वास्तव में देखें तो भारतीय महिलाओं का व्यवसायों में प्रतिनिधित्व कम नहीं है, लेकिन वे पुरुषों की तुलना में बहुत छोटी कंपनी का संचालन करती हैं , खासतौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में.
ये चौंकाने वाली बात नहीं है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महिलाओं का योगदान सिर्फ 17 प्रतिशत है. ये वैश्विक औसत से आधे से भी कम है.
एंटरप्रेन्योरशिप मॉनिटर रिपोर्ट 2021 के अनुसार, महिला उद्यमी के मामले में भारत 65 देशों में से 57वें स्थान है.
गौरव चिपलूनकर (वर्जीनिया यूनिवर्सिटी) और पिनेलोपी गोल्डबर्ग (येल यूनिवर्सिटी) अपने एक में कहते हैं कि महिला उद्यमी को बढ़ावा देने से महिलाओं की कार्यबल भागीदारी में महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी हो सकती है, ऐसा इसलिए क्योंकि महिलाओं के नेतृत्व वाले व्यवसाय अक्सर अन्य महिलाओं के लिए अधिक अवसर पैदा करते हैं.
उन्होंने एक रूपरेखा तैयार की है. इससे ये समझा जा सकता है कि भारत में महिलाओं को नौकरी करने और अपना ख़ुद का व्यवसाय शुरू करने में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.
उन्होंने पाया कि महिलाओं के लिए काम करना अभी भी कई रुकावटों से भरा है और जब महिलाएं अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए नए लोगों को काम पर रखना चाहती हैं तो उनके लिए ये महंगा और मुश्किल साबित होता है.
इस स्टडी में ये भी सामने आया है कि अगर इन बाधाओं को हटा दिया जाए तो महिला-स्वामित्व वाले व्यवसायों की संख्या बढ़ेगी. इससे महिलाओं की वर्क फोर्स में भागीदारी में सुधार होगा. बेहतर वेतन, ज़्यादा मुनाफा और अधिक कुशल महिला-स्वामित्व वाली कंपनियां कम उत्पादकता वाले पुरुष-स्वामित्व वाले व्यवसायों की जगह लेंगी. इससे आर्थिक लाभ भी बढ़ेगा.
इसलिए, स्टडी को लिखने वालों ने तर्क दिया कि ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे महिला उद्यमी को मदद मिले.
चिपलूनकर कहते हैं कि ऐसी नीतियां जो महिलाओं को बिज़नेस शुरू करने में सहयोग दें और काम के मौके बढ़ाएं, लंबे समय से चली आ रही सामाजिक धारणाओं को बदलने से ज़्यादा असरदार और तेज़ी से कारगर साबित हो सकती हैं.
अशोका यूनिवर्सिटी की अश्विनी देशपांडे कहती हैं, "इतिहास हमें बताता है कि धारणाएं जटिल होती हैं.''
घर का ज्यादातर काम महिलाएं ही करती हैं. जैसे खाना बनाना, साफ-सफाई, कपड़े धोना, बच्चे और बुजुर्गों की देखभाल करना. कई बाधाएं हैं जिसमें उनकी सुरक्षा, आने जाने के लिए अच्छे परिवहन और बच्चों की देखभाल, सीमित पहुँच सहित कई बाधाएं हैं जो काम करने की उनकी क्षमता को सीमित करती हैं.
कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी की रोली कपूर के हाल ही में किए गए एक अध्ययन में दिखाया गया है कि महिलाओं की स्वतंत्र रूप से यात्रा करने की सीमित क्षमता भी श्रम बाज़ार में उनकी भागीदारी को सीमित करने वाला एक प्रमुख कारक है.
देशपांडे ने एक रिसर्च पेपर में , "भारत में श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी में हाल ही में हुई वृद्धि के बावजूद तस्वीर उतनी आशाजनक नहीं है जितनी दिखती है.''
उन्होंने पाया कि ये स्वरोज़गार महिलाओं की संख्या में वृद्धि को दर्शाती है, जो कि वेतनभोगी काम और छिपी हुई बेरोज़गारी का मिश्रण है, जिसमें किसी काम के लिए वास्तव में आवश्यकता से अधिक लोगों को रोज़गार दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता कम होती है.
देशपांडे कहती हैं, "जॉब कॉन्ट्रैक्ट और सामाजिक सुरक्षा लाभ के साथ नियमित वेतन वाले काम में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की तत्काल ज़रूरत है. महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण की दिशा में ये सबसे महत्वपूर्ण कदम होगा, हालांकि ये एकमात्र कदम नहीं है."
ये आसान नहीं होने वाला है. कई महिलाएं काम करने में परिवार और समाज से बाधाओं का सामना करती हैं, चाहे वे अपना खुद का बिज़नेस शुरू करना चाहें या नहीं. और अगर ज्यादा महिलाएं काम करना शुरू भी करती हैं तो नया बिज़नेस शुरू करने में रुकावटें भी बनी रहती हैं, तो रोज़गार के मौके कम होने से उनके वेतन में भी गिरावट आ सकती है
से पता चलता है कि भारत में महिलाएं अवसर मिलने पर काम करती हैं. इसका मतलब है कि श्रम बल में भागीदारी की गिरावट का कारण काम के अवसरों की कमी और महिलाओं की मेहनत की मांग का कम होना है.
की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर भारत 2030 तक नए कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी आधे से ज्यादा सुनिश्चित कर ले तो 8% जीडीपी वृद्धि हासिल कर सकता है.
महिलाओं को उद्यमी बनने में बढ़ावा देना इस स्थिति से निकलने का एक रास्ता हो सकता है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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